ऋषि दयानन्द का बोध कैसा था?


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Prakash AryaDate
21-Feb-2020Category
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RajeevUpload Date
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- International Arya Maha Sammelan 2017 Mandalay, Myanmar.
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सारी दुनिया से न तो महर्षि का परिचय हुआ, ना ही महर्षि के उद्देश्यों को वे समझ सके। इसलिए ऐसे अपरिचित व्यक्तियों के संबंध में तो सोचना भी क्या? मैं उन महानुभावों के संबंध में सोच रहा हूँ जो महर्षि का अपने को अनुयायी कहते हैं। गुरुवर दयानन्द के नाम की जय बोलते हैं। ऋषि बलिदान दिवस, जन्मोत्सव और बोधरात्रि धूमधाम से मनाते हैं।
महर्षि के कार्यों से, उनके उद्देश्यों से आत्मिक संबंध रखने वाले देश-विदेश में बड़ी संख्या में सदस्या हैं। इतनी बड़ी संख्या व विस्तार होने के पश्चात भी ऋषि की भावना को, उनके कार्यों को वह गति नहीं मिल रही, वह अधूरे सपने पूरे नहीं हो पा रहे जो अब तक हो जाना चाहिए था। किसी भी कार्य की सफलता में तन-मन-धन अथवा प्रत्येक का समर्पण आवश्यक होता है। कहीं तन का, कहीं मन का, कहीं धन का महत्व कार्य के स्वरूप के अनुसार निश्चित होता है। किन्तु तन और धन के अतिरिक्त मन सबसे महत्वपूर्ण है, यदि मन नहीं है तो कोई संकल्प नहीं हो सकता, कोई संकल्प नहीं तो किसी कार्य में पूर्ण समर्पण नहीं हो सकता और बिना समर्पित भाव से किया कोई भी प्रयास मात्र औपचारिकता तक सीमित रह जाता है, जिसका ऊपरी रूप कुछ होता है और आंतरिक कुछ और।
आर्य समाज की स्थापना उन उद्देश्यों को लेकर की गई थी, जिनका अभाव तत्कालीन समाज में दिखाई दे रहा था — जैसे कि धर्म, संप्रदाय, आचार-व्यवहार और भय के नाम पर व्याप्त अंधविश्वास, कुरीतियाँ और रूढ़ियाँ। आर्य समाज ने उन सभी को तर्क और वैदिक ज्ञान के आधार पर चुनौती दी और लोगों को सत्य, निष्ठा और विवेक के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। उस समय धर्म की अवधारणाएँ अत्यधिक विकृत हो चुकी थीं और समाज अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयों, जातिगत भेदभाव और पाखंडों से ग्रस्त था। आर्य समाज ने इन सबके विरुद्ध एक वैचारिक और क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा किया, जिसने अनेक व्यक्तियों को आत्मचिंतन के लिए प्रेरित किया और समाज को सुधार की दिशा में अग्रसर किया। इस प्रकार आर्य समाज की स्थापना एक समय की सामाजिक आवश्यकता बन गई थी।
महर्षि को हुआ बोध उसकी प्रसन्नता के झोंक़े बजा बजाकर अपने को गौरवान्वित कर रहे हैं और दूसरों को बोध करवाने में लगे हैं। किंतु विडंबना है हमें अपने बोध की चिंता नहीं।"
"मानव समाज का बहुत बड़ा भाग चित्त्रों, प्रतीकों की पूजा से, इमारतों, नदियों से जीवन की प्राप्ति व सफलता मान रहा है। दर्शन लुप्त है, प्रदर्शन ही जीवन का उद्देश्य बनकर सीमित गया है। इसकी निन्दा, कटाक्ष हम करने में चूकते नहीं हैं। किंतु हम कहां खड़े हैं?
दयानन्द की जय, आर्य समाज के 10 नियमों की श्रेष्ठता का, तर्क के दौरा उद्घारण, संसार के सर्वोत्तम ईश्वरिय ज्ञान की दुहाई बस! क्या महर्षि के कार्यों को इतना कुछ आगे बढ़ायेगा?
महर्षि ने हमें ऐसा मार्ग दिखाया जो केवल वचनों से नहीं, बल्कि आचरण से हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले गया। उनकी समरसता, युवाओं और पूर्ण समर्पण से उन्होंने उस विचार को चलन में लाया, जो केवल सिद्धांत नहीं था, बल्कि एक जीवंत यथार्थ था।
उन्होंने जो कार्य किया, वह केवल शास्त्रीय नहीं, व्यावहारिक था — साफ़, सरल, पर पूर्ण। और जब हम उस कार्य को पूरा नहीं कर पाए, तो किसी और के लिए आश्चर्य बन गया कि ये कार्य किस लिए अधूरा रहा। यह हमारा कर्तव्य था कि हम उसे पूर्ण करें। हम उनके उत्तराधिकारी हैं, वारिस हैं। हम पर ही उस कार्य को पूर्ण करने की सारी ज़िम्मेदारी है।
क्या हममें ऋषि के जीवन का वही समर्पण, लगन, और सत्यनिष्ठा का भाव विद्यमान है? यदि नहीं, तो उपचारिकता का जीवन केवल एक फूल की तरह है जो दिखता तो सुंदर है, परंतु न खुशबू है, न कोई लाभ। इसलिए यदि अभी तक हम अपनी मंज़िल से बहुत दूर हैं, और कोई भी क्रांतिकारी बोध नहीं हो पाया, फिर हम बोध कब होगा?
भविष्य में ऋषि बोधोत्व स्वरूप मनाते समय अपने बोध के प्रति भी सजग रहें — तभी ऋषि बोधोत्व का सार्थकता होगा।”
लेखक: प्रकाश आर्य
मंत्री, सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा
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