कुछ दिन पहले ओवैसी के चेलों द्वारा एक वीडियो वायरल किया गया था, जिसमें यह दावा किया गया था कि 100 करोड़ लोगों पर भारी पड़ेंगे 15 करोड़। कुछ लोगों ने इस पर एतराज़ जताया कि यह बयान हिंदुओं के खिलाफ है, हालाँकि कर्नाटक में एफआईआर भी दर्ज हुई लेकिन बयान में एक छिपा सत्य सामने आ ही गया।

दरअसल यह बयान न बीजेपी के खिलाफ है न हिंदुओं के, क्योंकि इन्हें तो यह लोग अपना शत्रु समझते ही हैं, तो अब यह चेतावनी थी उन कथित दलितों को जो जय-मेम जय-भीम का गीत गा रहे थे। मतलब ओवैसी के चेलों ने दलित मुस्लिम एकता के लगे बैनर के ढोंग पर लात मारकर बता दिया कि चाहें चंद्रशेखर रावण हो या मायावती, जिग्नेश मेवाणी हो या कन्हैया कुमार – यह सब भी इनकी हिटलिस्ट में हैं, बस मौका का इंतजार है।

केवल यही नहीं बल्कि वो नकली बौद्ध भी जो अफ़गानिस्तान, श्रीलंका और म्यांमार से सबक़ न लेकर बौद्ध के उपासक बनने के बजाय मंचों पर मौलानाओं के पैरों में बैठे हैं — यह चेतावनी उनको भी थी। यह चेतावनी थी उन सिख भाइयों को जो अपना कथित फलेवर बचाकर शाहीना बाग़ में बियर्यानी परोस रहे हैं। रविश कुमार से लेकर स्वरा भास्कर को, अनुराग कश्यप को और धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़े सभी सेक्युलर और वामपंथियों को अपने एक ही बयान में वारिस पठान ने बता दिया कि कुछ भी कर लो, हमारी नजरों में आप सब काफ़िर हैं और काफ़िर का इलाज हमारी पुस्तकों में साफ-साफ लिखा है।

ये कोई ताज़ा मामला नहीं है, इतिहास गवाह है कभी ऐसे भ्रम का शिकार भी अम्बेडकर से भी बड़े एक दलित नायक जोगेंद्र नाथ मण्डल हुए करते थे। वह दिन रात दलित-मुस्लिम एकता का सपना देखा करते थे। नतीजा? हिन्दू होने के बावजूद उसने बंटवारे में भारत की जगह पाकिस्तान को चुना। लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद कुछ ही दिनों में उनके सपने पर लात लगी और किसी तरह भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी।

जोगेन्द्र नाथ मण्डल एक कट्टर पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखते थे। उन्होंने अपनी राजनीति को भी पिछड़ी जातियों के इर्द-गिर्द रखा था। पिछड़ी जातियों में, खासकर बंगाल में उनका अच्छा रसूख था। हिंदुओं को कोसकर मुसलमानों के वर्ग-स्वार्थ वाली पार्टी मुस्लिम लीग में जुड़ गए थे। उनके मुस्लिम लीग में जुड़ते ही जिन्ना के चेहरों पर मुस्कान फैल गई कि मुस्लिम लीग में मण्डल की मौजूदगी पाकिस्तान मूवमेंट को कैसे फायदा पहुंचा सकती है। इसी वजह से मण्डल कुछ ही समय में जिन्ना के बेहद खास हो गए और पार्टी में उनका कद शीर्ष के नेताओं में शुमार हो गया।

अब मण्डल भी खुलकर जिन्ना के सिद्धांतों की प्रशंसा करने लगे। लेकिन जिन्ना भी इस राजनीति के मायने समझ रहे थे, तभी उन्होंने इसको और अच्छी तरह से भुनाना शुरू कर दिया। इस वजह से बंगाल के राजनीतिक समीकरण भी तेजी से बदलने लगे।

नतीजा यह हुआ कि मण्डल और उनके अनुयायियों ने कांग्रेस पार्टी की तुलना में जिन्ना की मुस्लिम लीग को अधिक धर्मनिरपेक्ष समझना शुरू कर दिया। मण्डल को एक भ्रम हो गया था कि गाँधी के भारत के बजाय जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान में अनुसूचित जाति की स्थिति बेहतर होगी। वे अब खुलकर अलग पाकिस्तान के समर्थन में आ गए और शेष दलितों को भी इस मूवमेंट के साथ जोड़ने में जुट गए।

मुस्लिम लीग का मकसद था भारत को जितना हो सके उतना बाँटकर पाकिस्तान के नक्शे को बड़ा करना। इसलिए उन्होंने मंडल को प्रत्येक मौक़ों पर पार्टी का खास साबित किया। लीग के नेता यह बख़ूबी जानते थे कि केवल मुसलमानों की राजनीति से पाकिस्तान का नक्शा बड़ा नहीं होगा, इसके लिए ज़रूरी है कि दलितों को भी साथ रखा जाए।

कल तक जिन्ना जिस पाकिस्तान का वजूद मुसलमानों में तलाश रहा था, अब उस तलाश का केन्द्र दलित-मुसलमान हो चला था। लेकिन इनकी सोच के बीच में एक दीवार थी—जिसका नाम बाबा साहब आंबेडकर था। मुस्लिम लीग और जोगेन्द्र नाथ मंडल की दलितों और मुसलमानों का पाकिस्तान वाली सोच से आंबेडकर गहरा विरोध रखते थे। आंबेडकर भारत विभाजन के विरोध में थे। वे दलितों के लिए भारत को ही उपयुक्त मानते थे। वह जानते थे कि मुसलमान सिर्फ़ दलितों का इस्तेमाल कर रहे हैं, यदि भारत का बंटवारा मजबूरी में हो रहा है, तो ज़रूरी है कि कोई भी मुसलमान भारत में न रहे और पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं को भी भारत आ जाना चाहिए। इस बात से नाराज़ मंडल ने बाबा साहब से भी किनारा कर लिया।

इसके बाद जोगेंद्र नाथ मंडल ने मुस्लिम लीग की तरफ़ से भारत विभाजन के वक्त एक अहम किरदार निभाया था। बंगाल के कुछ इलाक़े जहाँ हिन्दू (जिनमें दलित भी शामिल हैं) और मुसलमानों की आबादी समान थी, वहाँ पाकिस्तान या हिंदुस्तान में शामिल होने हेतु चुनाव करवाए गए।

इन इलाकों को पाकिस्तान में शामिल करने हेतु ज़रूरी था कि सारे मुसलमान और हिंदुओं में से पिछड़ी जातियां पाकिस्तान के पक्ष में वोट करें। जिन्ना ने इसकी कमान जोगेंद्र नाथ मंडल को सौंपी थी। जैसे आज इस क़मान का मुख्य मोहरा बाबासाहेब वाला वामन मेश्राम, चंद्रशेखर रावण और जागनेश मेवाणी बना दिए गए हैं।

ख़ैर, जोगेंद्र नाथ मंडल दलितों के दिलों में इस बात को घुसाने में कामयाब रहे कि मुस्लिम ही दलितों के सच्चे मसीहा हैं। और पाकिस्तान में दलितों के हितों का सबसे अधिक ध्यान रखा जाएगा — मंडल के मनुवाद ब्राह्मणवाद के खिलाफ़ दिए गए जहरिले बयानों ने दलित मुस्लिम एकता कर दी और पिछड़ी जातियों के वोटों को पाकिस्तान के पक्ष में कर लिया और इस तरह जोगेंद्र नाथ मंडल की सहायता से जिन्ना ने भारत के बड़े हिस्से को पाकिस्तान के नक्शे में समाहित कर लिया।

ख़ैर, जोगेंद्र नाथ मंडल दलितों के दिलों में इस बात को घुसाने में कामयाब रहे कि मुस्लिम ही दलितों के सच्चे मसीहा हैं। और पाकिस्तान में दलितों के हितों का सबसे अधिक ध्यान रखा जाएगा। मंडल के मनुवादी ब्राह्मणवाद के खिलाफ़ दिए गए ज़हरीले बयानों ने दलित-मुस्लिम एकता कर दी और पिछड़ी जातियों के वोटों को पाकिस्तान के पक्ष में कर लिया। इस तरह जोगेंद्र नाथ मंडल की सहायता से जिन्ना ने भारत के बड़े हिस्से को पाकिस्तान के नक्शे में समाहित कर लिया।

पाकिस्तान के नक्शे को बड़ा करने के लिए मुस्लिम लीग ने जिस तरह मंडल का इस्तेमाल किया, वह पुरानी बॉलिवुड फ़िल्मों की उन कहानियों जैसा ही था — ‘जब एक विलन किसी बच्चे को किडनैप करने के लिए टॉफी या चॉकलेट की लालच देकर अपने पास बुलाता है और फिर अपना असली रंग दिखाना शुरू करता है।

बंटवारे के बाद मंडल एक बड़े दलित आबादी लेकर पाकिस्तान चले गए। जिन्ना ने भी उनके कर्ज़ को उतारते हुए उन्हें पाकिस्तान के पहले कानून और श्रम मंत्री का पद दे दिया। उन्हें लगने लगा होगा कि अब पाकिस्तान ने वास्तव में दलितों के लिए अच्छे दिन ला दिए हैं। लेकिन हुआ कुछ उल्टा। मंडल के कहने पर पहले ही दलितों के एक तबके ने अपने आप को हिंदुओं से अलग बता कर पाकिस्तान चले जाना सही समझा — लेकिन कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए खुद को अलग बताने वाले दलित केवल एक मोहरा बनाना शुरू हो गए।

धीरे-धीरे दलित हिंदुओं पर अत्याचार होने शुरू हो गए और मंडल की अहमियत भी खत्म कर दी गई। दलितों की निरंतर हत्याएं, जबरन धर्म-परिवर्तन, संपत्ति पर जबरन कब्ज़ा और दलित बहन-बेटियों की आबरू लूटना — यह सब पाकिस्तान में रोज़ की आम बात हो चुकी थी। इस पर मंडल ने मोहम्मद अली जिन्ना और अन्य नेताओं से कई बार बात भी की, लेकिन नेताओं की चुप्पी ने मंडल को उनकी आइना दिखा दिया।

बंटवारे के बाद पाकिस्तान में बचे ज्यादातर दलित या तो मार दिए गए या फिर मजबूरी में उन्होंने इस्लाम अपना लिया। इस दौरान दलित अपने ही नेता और देश के कानून मंत्री के सामने चीत्कारते-चिल्लाते रहे, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। मंडल यह सब देखकर ‘दलित-मुस्लिम राजनीतिक एकता’ के असफल प्रयोग के लिए खुद को कसूरवार समझने लगे और अपने आप को गहरे संताप व ग्लानि के आलम में झोंक दिया।

दलितों की अहम स्थिति को देखते हुए मंडल ने पाकिस्तान सरकार को कई खत लिखे लेकिन सरकार ने उनकी एक न सुनी। और तो और, एक हिंदू होने के कारण उनकी देशभक्ति पर भी सवाल उठाए जाने लगे। स्थितियों को भांपते हुए, 8 अक्टूबर 1950 की रात जोगेंद्रनाथ मंडल पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान के मंत्रिमंडल से त्याग पत्र देकर भारत आ गए।

वे गए थे लाखों अनुआयियों को लेकर लेकिन आए तो अकेले शरणार्थी बनकर। वे दलित वहीं रह गए हैं जो मंडल के कहने पर अपना देश छोड़ चले गए थे। दलित-मुस्लिम एकता की कीमत आज तक वह अबादी चुका रही है। वे रोज़ अपमानित हो रहे हैं, धर्म बदल रहे हैं, अपमान के घूंट पी रहे हैं, मेला उठा रहे हैं, भेदभाव का शिकार हो रहे हैं, मानो हर दिन मर-मर के जी रहे हैं।

5 अक्टूबर 1968 को जोगेंद्र नाथ मंडल का निधन उनकी जन्मभूमि (बंगाल) में नहीं, बल्कि इस भारत में भी नहीं, बल्कि पाकिस्तान में हुआ। लेकिन उनकी मौत के लगभग 50 साल बाद वही प्रश्न फिर से प्रासंगिक हो गया है। फिर नीतियाँ दोहराई जा रही हैं।

आज नए जोगेंद्रनाथ मंडल फिर उभर रहे हैं—चाहे इनमे चंद्रशेखर रावण हों, वामन मेश्राम हों, जिग्नेश मेवाणी हों या बामसेफ के ढोंगी। सभी साधे दलित बहनों को उसी नीति के तहत फिर भटकाना शुरू कर दिया है। इसमें मूलनिवासी का एजेंडा है, मनुवाद को गाली है, मौलानावाद को ताली है। हाँ, ये इमामों के चरणों में बैठे इनके कथित नेता हैं। मतलब बिल्कुल वही 70 वर्ष पुरानी स्क्रिप्ट है, बस चेहरे बदले हैं, नारे बदले हैं, साल बदला है—एक बार फिर धोखे का शिकार दलित समुदाय होने जा रहा है।

राजीव चौधरी

 

 

 


 

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