किसी कवि ने कहा कि सत्ता की कुर्सी हो या नेता का ईमान धरम, चाहे जान हो अपनों की, बिल्कुल आती नहीं शरम, पैसों के इस चक्रव्यूह में कहा कोई टिकता है, इस अवस्था में दुनिया में सब कुछ बिकता है।
भले ही भारत में कुछ लोग नए-नए इसाई बनकर चर्च की सीढ़ी पर अपना माथा फोड़ रहे हों या पादरियों के यौन शोषण का शिकार हो रहे हों लेकिन यूरोप के लोग इन गिरजाघरों से तौबा करते दिख रहे हैं।
कभी सारी दुनिया को इसाइयत का पाठ पढ़ाने वाले पश्चिमी देशों में एक अलग अजूबा हो रहा है। इसाइयत जर्जर रही है, उसके पैरों तले से जमीन खिसकती जा रही है।
इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि चर्च जाने वालों की संख्या लगातार घट रही है। कुछ देशों में तो यह मातृपांच प्रतिशत ही रह गई है।

यदि ध्यान से देखा जाए तो आज पश्चिमी देशों के लिए ईसाइयत मात्र एक ऐसी परंपरागत वस्तु बनकर रह गई है, जिसका उनकी दैनिक जीवन में न तो कोई विशेष अर्थ रह गया है, न ही कोई उपयोग। अब ईसाइयत उनके लिए एक निर्यात योग्य विचार मात्र बन गई है, जिसे वे भारत, नेपाल और अफ्रीकी देशों में फैलाने का प्रयास कर रहे हैं।

यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे वे अपने पुराने कपड़े, गाड़ियाँ, दवाइयाँ और आउट-ऑफ-डेट तकनीक तीसरी दुनिया के देशों में डंप कर देते हैं।

दरअसल, पिछले दो से तीन दशकों में पादरियों द्वारा किए गए यौन शोषण के घोटालों ने यूरोप के आधुनिक समाज को झकझोर कर रख दिया है। इसके चलते वहां के लोग तेजी से ईसाइयत से विमुख हो रहे हैं। चूंकि उनके लिए यह धर्म अब अप्रासंगिक हो चुका है, इसलिए यूरोप के अधिकांश चर्च खाली पड़े रहते हैं। कई चर्चों को अब रिहायशी मकानों या अन्य व्यावसायिक कार्यों के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है। यहाँ तक कि अनेक चर्चों को गैर-ईसाई समुदायों को बेच दिया गया है, जो अब उन्हें अपने पूजा-स्थल या प्रार्थना-गृह के रूप में उपयोग कर रहे हैं।

बात बिल्कुल साफ़ है कि लोगों की ईसाइयत में दिलचस्पी नहीं रही। उनके सवालों का कोई जवाब ईसाइयत के पास नहीं है।
कभी पश्चिम यूरोप के हर गांव में एक और शहरों में तो बहुत सारे चर्च होते थे। चर्च अब भी हैं, पर लोग वहां नहीं फटकते।

अब अगर इसे थोड़ा विस्तार से समझें तो कभी नीदरलैंड के अर्नहेम शहर में सेंट जोसेफ चर्च हुआ करता था, जहाँ बड़ी भीड़ होती थी। वहां 1,000 से भी ज़्यादा ईसाई जुटते थे। लेकिन अब वहां जीसस मूरतियों के बीच दर्ज़नों युवा स्केटिंग करते देखे जा सकते हैं।

यह पश्चिम यूरोप के उन सैंकड़ों चर्चों में से एक है जो श्रद्धालुओं के न आने के कारण बंद हो चुके हैं या बंद होने के कगार पर हैं। इंग्लैंड से लेकर डेनमार्क तक के सभी देशों के सामने आज सवाल है कि श्रद्धालुओं के अभाव में वीरान होते जा रहे चर्चों का क्या करें?

नतीजन आज जगह-जगह खाली पड़े चर्चों को यूरोप में बेचा जा रहा है। कहीं शॉपिंग मॉल बन गए हैं तो कहीं दुकानें। कई गिरजाघरों में तो शराब की दुकानें, जुआ-घर और बार भी खुल गए हैं। छोटे गिरजाघरों को लोग घरों की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं।

जो प्रॉपर्टी डीलर अभी तक मकान, दुकान और फ्लैट बेचा करते थे, अब वह चर्च भी बेच रहे हैं। यानी खाली पड़े गिरजाघरों के लिए ग्राहक खोजना अच्छा खासा धंधा बन गया है। कमाल देखिए — इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के गिरजाघरों की बिक्री के विज्ञापन तो ऑनलाइन मिलने लगे हैं। गिरजाघरों का इस तरह खाली होना और फिर बिक जाना इस बात का प्रमाण है कि ईसाई धर्म अपने ही गढ़ों में प्रभाव खोता जा रहा है।

अख़बार वॉल स्ट्रीट जर्नल का सामाजिक सर्वेक्षण यह बताता है कि यूरोप में चर्च जाने वालों की संख्या घट चुकी है। आज कुछ प्रतिश्त ईसाई ही नियमित रूप से एक बार चर्च जाते हैं। नीदरलैंड के कुल 1,600 रोमन कैथोलिक गिरजाघरों में से दो-तिहाई चर्च अगले दस वर्षों में बंद होने का अनुमान स्वयम् रोमन कैथोलिक गिरजाघरों की टीम ने ही लगाया है। उसी प्रकार हॉलैंड के 700 प्रोटेस्टेंट गिरजाघरों के भी अगले चार वर्षों में बंद होने का अनुमान है। जर्मनी के रोमन कैथोलिक चर्च ने 515 चर्च गत दशक में बंद किए हैं। 200 डेनिश चर्च अनुपयोगी हो चुके हैं। इंग्लैंड भी प्रतिवर्ष 20 से अधिक चर्च बंद कर रहा है। यही कहानी है सारे पश्चिमी यूरोप के गिरजाघरों की।

अमेरिकी आर्थिक अख़बार ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ में कुछ समय पहले छपे लेख में कहा गया था अमेरिका अभी भी बचा हुआ है, लेकिन अमेरिका में भी चर्च जाने वालों की संख्या तेजी से घट ही रही है। आने वाले वर्षों में अमेरिका को भी इसी समस्या का सामना करना पड़ेगा। अमेरिका के बाद कनाडा भी इस मामले में पीछे नहीं है। वहां भी बड़े पैमाने पर चर्च बंद रह रहे हैं। यह बात अलग है कि उनके आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन कनाडा में भी चर्चों के बिकने के विज्ञापन कई जगह देखने को मिल जाते हैं।

इसके अत्यधिक असर अमेरिका जनगणना ब्यूरो के दस्तावेजों को देखें तो सनसनीखेज तथ्य उभर कर आते हैं। यानी हर साल 4,000 चर्च अपने दरवाज़े बंद करते हैं, जबकि 1,000 नए चर्च शुरू होते हैं। हर साल 27 लाख चर्च जाने वाले लोग निराश हो जाते हैं। शोध में पाया गया कि उनको कोई ठेस लगी है या उनका किसी तरह का पादरी द्वारा शोषण या दुरुपयोग या उनसे गलत व्यवहार किया गया है। नतीजा अमेरिका में 1990 से 2000 के बीच प्रोटेस्टेंट गिरजाघरों की कुल सदस्यता 50 लाख कम हुई है, जबकि अमेरिका की आबादी 2 करोड़ 40 लाख बढ़ी है।

दरअसल ईसायत अपनाना या प्रचार करने के लिए कई तरह के नुस्खे अपनाती है। जैसे कि नर्क से बचाने और स्वर्ग में पहुंचाने के कल्पित वायदे, इनमें से एक है वादा है अगर आप पाप करते हैं तो ईसायत स्वीकार करने पर आपका स्वर्ग में सीट कंफर्म हो जाएगा। इसके अलावा बाइबल में एक हफ्ते में दुनिया का निर्माण, एक दिन सूरज का बनना दूसरे दिन चांद तारे तीसरे दिन समुद्र और पहाड़ बनाने जैसे झूठ से लोग पक चुके हैं। अब जब विज्ञान आगे बढ़ चुका है, इसलिए पढ़े-लिखे जनता इसे स्वीकार करने में हिचकिचाती है।

नतीजा पश्चिम यूरोप के देशों में जो चर्च नगर के केंद्र, उनकी वास्तुकला आक्रर्षण के केंद्र हुआ करते थे, वह सब अब गुजरे ज़माने की बात बनती जा रही है। लेकिन ईसायत की ट्रेज़डी यह है कि अब इन चर्च-त्यागियों की तो घर वापसी भी नहीं हो सकती। लेकिन इसके विपरीत वेटिकन के पोप उनकी सेना भारत में लगातार चर्च खड़े कर रही है, यहाँ धर्मांतरण की फसल काट रही है और यूरोप की भरपाई पूरी करने की कोशिश कर रही है। भारत में पहले ही ईसाइयों की संख्या लगभग पौने तीन करोड़ हो चुकी है लेकिन अकेले राजधानी दिल्ली में ही 225 चर्च हैं हो सकता है। जल्दी ही भारत के ईसाई भी पादरियों की क़र्रूत समझेंगे और वेटिकन का जाल तोड़कर पुनः अपनी सनातन संस्कृति का रुख करेंगे और यूरोप की तरह ही भारत के ये चर्च भी ऑनलाइन बिकते दिखेंगे।

 


 

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