नसबंदी ज़रूरी है पर किसकी


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Vinay AryaDate
25-Feb-2020Category
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RajeevUpload Date
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अगर किसी कारण केंद्र की मोदी सरकार जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने को आए तो उसका विरोध सबसे पहले विपक्षी शासित राज्यों में होगा और CAA की तरह उस कानून को लागू करने से मना करेंगे। किन्तु आजकल मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार ने नसबंदी को लेकर नया फरमान जारी किया है। कमलनाथ ने नसबंदी को लेकर स्वास्थ्य कर्मचारियों को टारगेट दिया है। सरकार ने कर्माचारियों के लिए हर महीने 5 से 10 पुरुषों के नसबंदी ऑपरेशन करवाना अनिवार्य कर दिया है। अगर कर्मचारी नसबंदी नहीं करा पाते हैं तो उनको नो-वर्क, नो-पे के आधार पर वेतन नहीं दिया जाएगा।
यानी मध्यप्रदेश में नसबंदी सुचारू रूप से चलनी चाहिए ये नसबंदी किसकी होगी कौन इसमें शामिल होगा आप बखूबी जानते हैं। क्योंकि अल्पसंख्यक समुदाय की तो हरगिज़ नहीं होगी क्योंकि उनके यहाँ क्वांटिटी को खुदा की देन कहा जाता है और भला वोट बैंक के लिए खुदा देन में कमलनाथ कैसे हाथ अड़ाएंगे।
हालांकि जब-जब नशाबंदी का जिक्र आता है तो सबसे पहले जेहन में संजय गांधी का नाम उभरकर आता है। क्योंकि आपातकाल के दौरान जिस संजय गांधी ने जोर-शोर से नशाबंदी अभियान चलाया था वह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के दोस्त थे। लेकिन कमलनाथ के उलट थे संजय गांधी ने फैसला किया था कि यह काम देश की राजधानी दिल्ली से शुरू होना चाहिए और वह भी पुरानी दिल्ली से जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है वहां से शुरू किया गया। उन दिनों नशाबंदी को लेकर कई तरह की भ्रांतियां थीं। मुस्लिम समुदाय के बीच तो यह भी धारणा थी कि यह उसकी आबादी घटाने की साजिश है।
लेकिन इसके उलट संजय गांधी का मानना था कि अगर वे मुस्लिम समुदाय के बीच नशाबंदी कार्यक्रम को सफल बना पाए तो देश भर में एक बड़ा संदेश जाएगा। शुरुआत में लोगों को प्रेरित करने के लिए उन्हें जमीनें भी दी गईं। लेकिन फिर वह घटते-घटते पांच किलो घी और एक घड़ी पर आ गया। ऐसे भी लोग थे जिन्हें नशाबंदी करवाने पर जमीन देने का वादा तो किया गया था लेकिन मिली नहीं। शुरू में तो नशाबंदी राजामंदी से की जानी थी लेकिन बाद में यह क्रूरतापूर्वक की जाने लगी।
इस पर जोर इतना ज्यादा था कि कई जगह पुलिस द्वारा गांवों को घेरने और फिर पुरुषों को जबरन खींचकर उनकी नसबंदी करने की भी खबरें आईं थीं। कुछ लोग तो ये भी कहते हैं कि इस अभियान में करीब जो सरकारी आंकड़े हैं वो 40 लाख हैं, अनौपचारिक जानकारियों में 60 लाख लोगों की नसबंदी बताई जाती है। जिनमें 60 फीसदी मुसलमान थे, जिनमें गलत ऑपरेशनों से करीब दो हजार लोगों की मौत भी हुई थी।
हालांकि संघीय जैसा एक अभियान 1933 में जर्मनी में भी चलाया गया था। हिटलर द्वारा इस अभियान में करीब चार लाख लोगों की नसबंदी कर दी गई थी। असल में संघीय गाथा के सिर पर नसबंदी का ऐसा जुनून क्यों सवार हो गया था कि वे इस मामले में हिटलर से भी 15 गुना आगे निकल गए थे? दरअसल ऐसा कई चीजें एक मॉडल पर मिलने से मुमकिन हुआ था। एक तो संघ की कम से कम समय में खुद को प्रभावी नेता के तौर पर साबित करने की महत्वाकांक्षा थी और दूसरा आपातकाल के दौरान मिली निरंकुश शक्ति हाथ लग गई थी।
असल में 25 जून 1975 को देश के ऊपर आपातकाल थोप दिया गया था। विपक्ष के सभी नेता एक-एक कर गिरफ़्तार किए गए और जेल में ठूँस दिए गए थे। क्योंकि आपातकाल लगने के बाद ही राजनीति में आए संघ परिवार के बारे में यह साफ़ हो गया था कि आगे गांधी-नेहरू परिवार की विरासत वही संभालेंगे।
आपातकाल शुरू होने के बाद पश्चिमी देशों का एक गुट भारत में जोरशोर से नसबंदी कार्यक्रम लागू करने की वकालत करने लगा। इंदिरा गांधी ने यह बात मान ली। यह उनकी मजबूरी भी थी क्योंकि वे खुद कुछ ऐसा करना चाह रही थीं जिससे लोगों का ध्यान उस आपातकाल और अदालती मामले से भटकाया जा सके। जिससे उनकी किरकिरी हो रही थी। उन्होंने संघ परिवार को नसबंदी कार्यक्रम लागू करने की जिम्मेदारी सौंप दी, जो मानो इसका इंतजार ही कर रहे थे।
इसके बाद कुछ महीनों तक इतने बड़े कार्यक्रम के लिए कामचलाऊ व्यवस्था ख़ड़ी करने का काम हुआ। यही वजह है कि उन्होंने आपातकाल के दौरान मिले निरंकुश ताक़त का इस्तेमाल करते हुए यह अभियान शुरू कर दिया। अधिकारियों को महीनों के हिसाब से टार्गेट दिए गए और उनकी रोज़ समीक्षा होने लगी।
संघ इस फ़ैसले को युद्ध स्तर पर लागू कराना चाहते थे। सभी सरकारी महकमों को साफ़ आदेश था कि नसबंदी के लिए तय लक्ष्य को वह वक्त पर पूरा करें, नहीं तो तन्ख्वाह रोककर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। इस काम की रिपोर्ट सीधे मुख्यमंत्री दफ़्तर को भेजने तक के निर्देश दिए गए थे। साथ ही अभियान से जुड़ी हर बड़ी अपडेट पर संघ गांधी खुद नज़रें गड़ाए हुए थे। ऐसी सख़्ती से लेट-लतीफ़ कही जाने वाली नौकरशाही के होश उड़ गए और सभी को अपनी नौकरियाँ बचाने की पड़ी थी।
वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता अपनी किताब द संजय स्टोरी में लिखते हैं, संजय का यह दांव बैक फायर कर गया और 1977 में पहली गैर-कांग्रेस सरकार बनने के पीछे नसबंदी के फैसले को भी एक बड़ी वजह माना गया। 21 महीनों बाद जब आपातकाल खत्म हुआ तो सरकार के इसी फैसले की आलोचना सबसे ज्यादा हुई। बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी ने तो नसबंदी की आलोचना में एक कविता तक लिखी थी। इस कविता के बोल थे, 'आओ मर्दों, नामर्द बनो।' संघ गांधी का यह अभियान आपातकाल का सबसे दमदारी अभियान साबित हुआ और आजतक इस अभियान के नाम से लोग सिहर जाते हैं। अब कमलनाथ का बयान देखने लायक है कि कितना कारगर होगा अपने दोस्त जैसा हाल होगा या उससे आगे निकल जाएंगे। लेकिन नसबंदी कराने से पहले 2011 की जनगणना के आंकड़े उठाकर जरूर देख लें कि आबादी किसी बढ़ रही है और नसबंदी पहले किसकी जरूरत है।
Very true