आज दीपावली का परव महरषि दयाननद जी का बलिदान परव भी है। कारतिक मास की अमावसया 30 अकतूबर, 1883 को दीपावली के दिन ही सायंकाल  अजमेर में उनका बलिदान हआ था। मृतय से कछ दिन पूरव महरषि दयाननद के जोधपर में धरम परचार से रूषट उनके विरोधियों ने उनको विष देकर व बाद में उनकी चिकितसा में लापरवाही कर उनको सवासथय की सी विषम सथिति में पहंचा दिया था जो उनके बलिदान का कारण बनी। आज दीपावली पर उनको याद करने के पीछे भी हमारा व मानव जाति का हित छिपा हआ है। महरषि दयाननद के जीवन का मखय कारय वेदों के जञान को अरजित करना और उसका देश व विदेश में परचार करना था। वेद जञान का महतव इस कारण है कि यह सृषटि के आरमभ में ईशवर दवारा चार ऋषियों अगनि, वाय, आदितय और अंगिरा को परेरित व उनकी आतमाओं में सथापित किया गया जञान है जिसमें ईशवर, जीवातमा, परकृति व सृषटि का यथारथ परिचय देकर करतवय व अकरतवय अरथात मनषय धरम का बोध कराया गया है। इस जञान के परिपरेकषय में जब हम मनषय जीवन के उददेशय पर विचार करते हैं तो हमें जञात होता है कि मनषय के जीवन का उददेशय भी संसार के सभी पदारथों को जानकर उनसे यथायोगय उपयोग लेना, ईशवर हमारा व सब पराणियों का जनमदाता है, सखों का दाता व करमों का फल परदाता है, अतः उसकी सतति, परारथना व उपासना कर उससे जीवन के लकषयों की सफलता के लि उससे सहायता की विनती करना और वैदिक शिकषाओं के अनसार जीवन को बनाना व चलाना ही है। वैदिक पथ पर चलकर ही मनषय जीवन की उननति होकर जीवन के उददेशय व लकषयों धरम-अरथ-काम-मोकष की परापति होती है। मनषय के लि जीवन के उददेशय व लकषयों को परापत करने का वैदिक जीवन पदधति व वेद विहित करतवयों का पालन करने के अलावा कोई मारग नहीं है। यदि संसार का कोई मनषय वेद मारग पर चलकर साधना व करतवयों को पालन नहीं करेगा तो उसका यह जीवन उसे भविषय में घोर दःखों की ओर ले जायेगा जिसका सधार अनेक जनमों में भी कठिनता से हो सकेगा। इसका परमख कारण जीवातमा का अविनाशी, अमर, नितय, जनम मरण को परापत होना, करमों का फल भोगना आदि हैं।

महरषि दयाननद ने अपने जीवन में सतय की खोज व अनसंधान कर कठोर साधना की थी जिसके परिणाम सवरप उनको वेदों का जञान व योग विदया की परापति हई थी। अपने गरू की आजञा व अपनी परकृति व परवृतति के अनसार भी उनहोंने वेद अरथात सतय जञान के परचार को ही अपने जीवन का उददेशय निरधारित किया था। इसकी आवशयकता इस लि थी कि उनके समय में संसार से सतय जञान परायः लपत हो चका था और सभी मनषय जो जीवन वयतीत कर रहे थे वह जीवन के उददेशय व लकषय धरम, अरथ, काम व मोकष की परापति से कोसों दूर था। यदि महरषि दयाननद वेद व सदजञान के परचार का कारय न करते तो मनषय इस सृषटि की शेष अवधि भर भटकता रहता तथा उसे सतय मारग परापत नहीं हो सकता था। मत-मतानतरों के अजञानी व सवारथी लोग उसका पूरववत शोषण करते रहते जिससे दोनों की ही अवनति होकर संसार में दःख व अशानति भरी हई होती। महरषि दयाननद के दवारा वेद परचार करने पर भी संसार अभी भी अजञान व सवारथों में फंसा हआ है। सा देखा जाता है कि लोगों में सतय को जानने व उसका आचरण करने के परति जो दृणता होनी चाहिये, उसका उनमें नितानत अभाव है। संसार के सभी मनषय जीवन की समसयाओं के सरल उपाय करना चाहते हैं। इसी कारण सवारथी लोग उनका शोषण करते हैं और दोनों ही अधरम को परापत होकर अपना भविषय उननत करने के सथान पर अवनत होकर सदीरघ काल तक उनका फल भोगते हैं।

महरषि दयाननद जी का योगदान यह है कि उनहोंने ईशवर व जीवातमा सहित सभी विषयों का सतय जञान परापत कर, उसकी परीकषा दवारा उसे तरक की कसौटी पर कस कर उसका परचार किया। उनहोंने बताया कि ईशवर को बरहम व परमातमा आदि भी कहते हैं। यह ईशवर सचचिदाननद आदि लकषण यकत है। ईशवर के गण, करम व सवभाव पवितर हैं। वह सरवजञ, निराकार, सरववयापक, अजनमा, अननत, सरवशकतिमान, दयाल, नयायकारी, सब सृषटि का करतता, धरतता, हरतता व सब जीवों को करमानसार सतय नयाय से फलदाता आदि लकषणों से यकत है। इसी ईशवरीय सतता को सभी को परमातमा जानना व मानना चाहिये।

महरषि दयाननद ने वेदों का परिचय कराते ह बताया है कि विदया व सतय जञान से यकत ईशवर परणीत जो मनतर संहितायें हैं, वह निभररानत जञान होने से सवतः परमाण हैं। यह चारों वेद सवयं परमाणसवरूप हैं, कि जिनका परमाण होने में किसी अनय गरनथ की अपेकषा नहीं है। जैसे सूरय वा परदीप अरथात दीपक अपने सवरूप के सवतः परकाशक और पृथिवयादि के भी परकाशक होते हैं, वैसे ही चारों वेद हैं। चारों वेद और वैदिक साहितय के अनतरगत सभी बराहमण गरनथ, 6 वेदांग और 6 वेदों के उपांग अरथात दरशन गरनथ, चार उपवेद और 1127 वेदों की शाखायें यह सभी वेदों के वयाखयानरूप गरनथ हैं और इनहें बरहमा आदि अनेक ऋषियों ने बनाया है। यह सब परतः परमाण की कोटि में आते हैं। परतः परमाण का अरथ है कि यदि यह वेदानकूल हों तो परमाण और इनकी जो बात वेदानकूल न हो वह अपरमाण होती है। महरषि दयाननद जी ने अपने जीवन में सबसे बड़ा कारय सतयारथ परकाश, ऋगवेदादिभाषय भूमिका, संसकार विधि, आरयाभिविनय, गोकरूणानिधि व वयवहार भान सहित वेदों के भाषय का लेखन, समपादन व परकाशन है। इसके अतिरिकत वैदिक मानयताओं के परचार हेत उपदेश, परवचन, वयाखयान, वारतालाप, शासतर चरचा तथा शासतरारथ आदि हैं। उनके अनयायी अनय वैदिक विदवानों के वेद भाषय भी मानव जाति की सबसे बड़ी समपतति व समपदायें हैं।

महरषि दयाननद ने बताया कि पकषपात रहित नयाय का आचरण तथा सतय भाषण आदि से यकत ईशवर की आजञा जो वेदों के अनकूल हो, उसी को धरम कहते हैं। और जो इसके विपरीत हो वह अधरम होता है। हमारा जीवातमा कया है? इस पर महरषि दयाननद जी बताते हैं कि जो इचछा, दवेष, सख, दःख और जञान आदि गणों से यकत, अलपजञ अरथात अलप जञान वाला, नितय पदारथ व ततव है, वही जीव कहलाता है। ईशवर, वेद, धरम, अधरम और जीवातमा का जो जञान महरषि दयाननद जी ने दिया है, वह यथारथ व पूरण सतय है। अनय मतों में समगर रूप में इस परकार का जञान उनके समय में उपलबध नहीं था। आज भी मत-मतानतरों की पसतकें पढ़कर यह सतय जञान परापत नहीं होता। इनमें अनेकानेक भरानतियां भरी हई हैं। इसलि वैदिक धरम और वेद आज भी सबसे अधिक पूरण परमाणिक वं पठनीय गरनथ हैं।

महरषि दयाननद ने मनषयों को सचची ईशवर की सतति, परारथना व उपासना करना सिखाया। इसके लि उनहोंने बरहम यजञ अरथात वैदिक ईशवरोपासना की विधि भी लिखी है जो क परकार से योगदरशन का निचोड़ है। इसका अभयास करने से जीवातमा के सभी अवगण दूर होकर उसमें सदगणों का आविरभाव होता है और आतमा का बल इतना बढ़ता है कि मृतय के समान दःख परापत होने पर भी वह घबराता नहीं है। ईशवर की सतति, परारथना व उपासना करने से मनषय जीवन की उननति होती है और मृतय के पशचात उसको अचछा देव कोटि का जनम वा मकति की परापति होती है। महरषि दयाननद ने अपने जञान व परूषारथ से सृषटि के परति मनषय के करतवय के निरवाह हेत ‘‘अगनिहोतर, यजञ वा हवन का भी विधान किया है इसको करने से भी जीवनोननति सहित परजनम सधरता व उननत होता है व अभीषट इचछाओं व आकांकषाओं की पूरति होती है। इसके साथ ही मनषय सवसथ रहते ह ईशवर की सहायता से अनेक विपदाओं से सरकषित रहता है। अतः ईशवरोपासना और दैनिक यजञ को सभी मनषयों को करके अपने जीवन को उननत व लाभानवित करना चाहिये।  

महरषि दयाननद ने सतय जञान व वेदों का परचार ही नहीं किया अपित समाज सधार हेत समाज में वयापत अजञान, अनधविशवास व करीतियों का खणडन भी किया। मिथया मूरतिपूजा, फलित जयोतिष, मृतक शरादध, जनमना जातिवाद, सामाजिक विषमता, बाल विवाह, परतनतरता, गोहतया आदि का खणडन कर इसके विपरीत सचची ईशवर उपासना, यजञ, जनम से सभी मनषयों की समानता, सबको विदयाधययन के समान अवसरों को परदान किये जाने का समरथन भी किया। उनपकी विचारधारा से लिगं भेद व रंग भेद आदि का भी निषेध होता है। उनहोंने सतरियों के परति किये जाने वाले सभी भेदभावों को दूर कर उनहें शिकषित करने सहित देशोननति के कारय करने के लि परोतसाहित व परेरित किया। उनहोंने मनसमृति के वचन उदधृत कर बताया कि जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं। साथ हि जहां नारियों का सममान नहीं होता, वहां की जाने वाली सभी अचछी करियायें भी वयरथ होती हैं।

वैदिक धरम का अधययन कर सभी अधयेता इस निषकरष पर पहंचते हैं कि वेद ही सारी मानव जाति के सख व समृदधि सहित धरम-अरथ-काम-मोकष की सिदधि में सहायक है। इससे परजनम भी सधरता है और वरतमान जीवन भी उननत व सखी होता है। इन सब जञानयकत बातों से परिचित कराने का शरेय महरषि दयाननद जी को है। उनहोंने इन सभी सिदधानतों को अपने जीवन में चरितारथ कर हमारा मारगदरशन किया। आज उनके बलिदान दिवस पर उनको सचची शरदधाजंलि यही हो सकती है कि हम उनके सभी विचारों का अधययन कर उनका मनन करते ह उनहें अपने जीवन में अपनायें और उन पर आचरण कर जीवन को अभयदय व निःशरेयस के मारग पर आरूढ़ करें। महरषि दयाननद ने अपने जीवनकाल में अपने वेद परचार कारयों के अनतरगत मनषय को ईशवर, जीवातमा व संसार का यथारथ परिचय कराने सहित करतवय और अकरतवय रूपी मनषय धरम का बोध कराया था। आज महरषि दयाननद जी के बलिदान दिवस पर हम उनको अपनी विनमर शरदधाजंलि अरपित करते हैं और सभी पाठको को दीपावली की बहत-बहत हारदिक शभकामनायें भेंट करते हैं।

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