महरषि दयाननद सरसवती (1825-1883) उननीसवीं शताबदी के समाज व धरम-मत सधारकों में अगरणीय महापरष हैं। उनहोंने 10 अपरैल सन 1875 ई. (चैतर शकला 5 शनिवार समवत 1932 विकरमी) को ममबई में आरयसमाज की  सथापना की थी। इससे पूरव उनहोंने 6 या 7 सितमबर, 1872 को वरतमान बिहार परदेश के आरा सथान पर आगमन पर भी वहां आरयसमाज सथापित किया था। उपलबध इतिहास व जानकारी के अनसार यह परथम आरयसमाज था। महरषि दयाननद सरसवती की जीवनी के लेखक पं. देवेनदरनाथ मखोपाधयाय रचित जीवन चरित में इस विषय में उललेख है कि नगर के सभी समभरानत परष महाराज के दरशनारथ आते थे और सनधया-समय उनके पास अचछी भीड़ लग जाती थी। सवामीजी ने आरा में क सभा की भी सथापना की थी जिसका उददेशय आरयधरम और रीति-नीति का संसकार करना था, परनत उसके क-दो ही अधिवेशन ह। सवामी जी के आरा से चले जाने के पशचात थोड़े ही दिन में उसकी समापती (गतिविधियां बनद) हो गई। जिन दिनों आरयसमाज आरा की सथापना हई, तब न तो सतयारथपरकाश परकाशित हआ था और न हि संसकारविधि, आरयाभिविनय वा अनय किसी परमख गरनथ की रचना ही हई थी। आरा में सवामीजी का परवास मातर 1 या 2 दिनों का होने के कारण आरयसमाज के नियम आदि भी नहीं बनाये जा सके थे। यहां से सवामीजी पटना आ गये थे और यहां 25 दिनों का परवास किया था। आरा में सवामीजी ने पं. रदरदतत और पं. चनदरदतत पौराणिक मत के पणडितों से मूरतिपूजा पर शासतरारथ किया था। परसंग उठने पर आपने बताया था कि सभी पराण गरनथ वंचक लोगों के रचे ह हैं। आरा में सवामी जी के दो वयाखयान ह जिनमें से क यहां के गवरनमेंट सकूल के परांगण में हआ था। वयाखयान वैदिक धरम विषय पर था जिसमें बोलते ह सवामी जी ने कहा था कि परचलित हिनदू-धरम और रीति-रिवाज वेदानमोदित नहीं हैं, परतिमा-पूजा वेद-परतिपादित नहीं है, विधवा विवाह वेद-सममत और बाल-विवाह वेदविरदध है। वयाखयान में सवामी जी ने कहा था कि गर-दीकषा करने की रीति आधनिक है तथा मनतर देने का अरथ कान में फूंक मारने का नहीं है, जैसा कि दीकषा देने वाले गरू करते थे।

सवामी दयाननद जी ने 31 दिसमबर 1874 से 10 जनवरी 1875 तक राजकोट में परवास कर वैदिक धरम का परचार किया। यहां जिस कैमप की धरमशाला में सवामी ठहरे, वहां उनहोंने आठ वयाखयान दिये जिनके विषय थे ईशवर, धरमोदय, वेदों का अनादितव और अपौरषेयतव, पनरजनम, विदया-अविदया, मकति और बनध, आरयों का इतिहास और करतवय। यहां सवामीजी ने पं. महीधर और जीवनराम शासतरी से मूरतिपूजा और वेदानत-विषय पर शासतरारथ भी किया। सवामीजी का यहां राजाओं के पतरों की शिकषा के कालेज, राजकमार कालेज में क वयाखयान हआ। उपदेश का विषय था ‘‘अंहिसा परमो धरम। यहां सकूल की ओर से सवामीजी को परो. मैकसमूलर समपादित ऋगवेद भेंट किया गया था। राजकोट में आरयसमाज की सथापना के विषय में पं. देवेनदरनाथ मखोपाधयाय रचित महरषि दयाननद के जीवन चरित में निमन विवरण परापत होता है-सवामीजी ने यह परसताव किया कि राजकोट में आरयसमाज सथापित किया जा और परारथना-समाज को ही आरयसमाज में परिणत कर दिया जा। परारथना-समाज के सभी लोग इस परसताव से सहमत हो गये। वेद के निभररानत होने पर किसी ने आपतति नहीं की। सवामीजी के दीपतिमय शरीर और तेजसविनी वाणी का लोगों पर चमबक जैसा परभाव पड़ता था। वह सबको नतमसतक कर देता था। आरयसमाज सथापित हो गया, मणिशंकर जटाशंकर और उनकी अनपसथियों में उततमराम निरभयराम परधान का कारय करने के लि और हरगोविनददास दवारकादास और नगीनदास बरजभूषणदास मनतरी का करतवय पालन करने के लि नियत ह। आरयसमाज के नियमों के विषय में इस जीवन-चरित में लिखा है कि सवामीजी ने आरयसमाज के नियम बनाये, जो मदरित कर लिये गये। इनकी 300 परतियां तो सवामीजी ने अहमदाबाद और ममबई में वितरण करने के लि सवयं रख लीं और शेष परतियां राजकोट और अनय सथानों में बांटने के लि रख ली गई जो राजकोट में बांट दी रगइं, शेष गजरात, काठियावाड़ और उततरीय भारत के परधान नगरों में भेज दी गईं। उस समय सवामी जी की यह सममति थी कि परधान आरयसमाज अहमदाबाद और ममबई में रहें। आरयसमाज के सापताहिक अधिवेशन परति आदितयवार को होने निशचित ह थे। यह धयातवय है कि राजकोट में आरयसमाज की सथापना पर बनाये गये नियमों की संखया 26 थी। इनमें से 10 नियमों को आगे परसतत किया जा रहा है।

इसके बाद ममबई में 10 अपरैल, सन 1875 को आरयसमाज की सथापना हई। इससे समबनधित विवरण पं. लेखराम रचित महरषि दयाननद के जीवन चरितर से परसतत है। वह लिखते हैं कि ‘सवामीजी के गजरात की ओर चले जाने से आरयसमाज की सथापना का विचार जो बमबई वालों के मन में उतपनन हआ था, वह ढीला हो गया था परनत अब सवामी जी के पनः आने से फिर बढ़ने लगा और अनततः यहां तक बढ़ा कि कछ सजजनों ने दृढ़ संकलप कर लिया कि चाहे कछ भी हो, बिना (आरयसमाज) सथापित कि हम नहीं रहेंगे। सवामीजी के लौटकर आते ही फरवरी मास, सन 1875 में गिरगांव के मोहलले में क सारवजनिक सभा करके सवरगवासी रावबहादर दादू बा पांडरंग जी की परधानता में नियमों पर विचार करने के लि क उपसभा नियत की गई। परनत उस सभा में भी कई क लोगों ने अपना यह विचार परकट किया कि अभी समाज-सथापन न होना चाहिये। सा अनतरंग विचार होने से वह परयतन भी वैसा ही रहा (आरयसमाज सथापित नहीं हआ)।’ इसके बाद पं. लेखराम जी लिखते हैं, और अनत में जब कई क भदर परषों को सा परतीत हआ कि अब समाज की सथापना होती ही नहीं, तब कछ धरमातमाओं ने मिलकर राजमानय राजय शरी पानाचनद आननद जी पारेख को नियत कि ह नियमों (राजकोट में निरधारित 26 नियम) पर विचारने और उनको ठीक करने का काम सौंप दिया। फिर जब ठीक कि ह नियम सवामीजी ने सवीकार कर लि, तो उसके पशचात कछ भदर परष, जो आरयसमाज सथापित करना चाहते थे और नियमों को बहत पसनद करते थे, लोकभय की चिनता न करके, आगे धरम के कषेतर में आये और चैतर सदि 5 शनिवार, संवत 1932, तदनसार 10 अपरैल, सन 1875 को शाम के समय, मोहलला गिरगांव में डाकटर मानक जी के बागीचे में, शरी गिरधरलाल दयालदास कोठारी बी.., ल.ल.बी. की परधानता में क सारवजनिक सभा की गई और उसमें यह नियम (28 नियम) सनाये गये और सरवसममति से परमाणित ह और उसी दिन से आरयसमाज की सथापना हो गई।

हम अनमान करते हैं कि पाठक आरयसमाज के उन 28 नियमों को अवशय जानने को उतसक होंगे जो ममबई में सथापना के अवसर पर सवीकार किये गये थे। यदि इन सभी नियमों को परसतत करें तो लेख का आकार बहत बढ़ जायेगा अतः चाहकर भी हम केवल 10 नियम ही दे रहे हैं। पाठकों से निवेदन है कि वह इन नियमों को पं. लेखराम रचित महरषि दयाननद के जीवन चरित में देख लें। महरषि दयाननद के पतर और विजञान के दूसरे भाग में तृतीय परिशिषट के रूप में यह 28 नियम महरषि दयाननद कृत हिनदी वयाखया सहित दिये गये हैं। वहां इनहें देख कर भी लाभ उठाया जा सकता है। 28 में से परथम 10 नियम हैं। 1-सब मनषयों के हितारथ आरयसमाज का होना आवशयक है। 2-इस समाज में मखय सवतःपरमाण वेदों का ही माना जायेगा। साकषी के लि तथा वेदों के जञान के लि और इसी परकार आरय-इतिहास के लि, शतपथ बराहमणादि 4, वेदांग 6, उपवेद 4, दरशन 6 और 1127 शाखा (वेदों के वयाखयान), वेदों के आरष सनातन संसकृत गरनथों का भी वेदानकूल होने से गौण परमाण माना जायगा। 3- इस समाज में परति देश के मधय (में) क परधान समाज होगा और दूसरी शाखा परशाखां होंगीं। 4- परधान समाज के अनकूल और सब समाजों की वयवसथा रहेगी। 5- परधान समाज में वेदोकत अनकूल संसकृत आरय भाषा में नाना पà

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