भारत विगत लगभग पौने दो अरब वरषों से अधिक तक वैदिक धरम व वैदिक संसकृति का अनयायी रहा है। भारत वा आरयावरतत का इतिहास उतना ही पराचीन है जितना कि यह बरहमाणड। सृषटि की आदि, लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख, 53 हजार वरष, से वेदों को मानने व उसके अनसार शासन करने वाले लाखों राजा ह हैं जिनहोंने वेदों की मानयताओं वं सिदधानतों के अनसार राजय व शासन किया है। भारत का इतिहास अतयनत पराचीन होने व इसके लिखित रूप में सरकषित न होने के कारण उसके विसतृत विवरण उपलबध नहीं है। इसका दूसरा कारण यह भी है कि अनेक विधरमियों ने वैदिक साहितय का नाश किया जिसके कारण अनेक परमख इतिहास आदि के गरनथ नषट हो गये। इतिहास में यहां तक विवरण हैं कि विधरमियों ने जब तकषशिला व नालनदा के पसतकालयों को अगनि को समरपित किया तो वहां महीनों तक अगनि जलती रही व उन गरनथों का धआं आकाश में उठता रहा। इससे अनमान लगाया जा सकता है कि हमारा कितना साहितय नषट किया गया। इसका कारण हमारे कछ व अनेक पूरवजों की अकरमणयता को ही माना जा सकता है।

हमारा सौभागय है कि हमारे पास वरतमान में भी अनेक पराचीन गरनथ बचे ह हैं। इनमें से क शतपथ बराहमण गरनथ है। यह यदयपि अति पराचीन गरनथ है परनत काल परवाह में इसमें भी अनेक परकषेप भी ह हैं। परकषेप करने वालों ने अपने-अपने मतानसार उस-उस शासतर के सिदधानतों के विपरीत विचारों को उसमें मिलाया अवशय परनत यह अचछी बात हई कि उसमें से कछ निकाला नहीं। इन पराचीन गरनथों का अधययन करने से यह परिणाम निकलता है। यदि परकषेपकतरता पराचीन गरनथों में से अचछी बातों को निकालते तो फिर मनसमृतयादि गरनथों में शरेषठ व उततम विचार व बातें न होती? शतपथ बराहमण वा छानदोगय उपनिषद में क परसिदध परकरण आता है जिसमें कैकेय राजय के राजा अशवपति अपने राजय की आदरश सथिति का वरणन वा घोषणा करते हैं। वैदिक साहितय के परवर विदवान पं. विशवनाथ विदयालंकार जी ने इसका उललेख अपने गरनथ शतपथबराहमणसथ अगनिचयन-समीकषा के बारहवें परिशिषट में किया है। वहीं से यह परकरण उदधृत कर रहे हैं।

“शतपथ बराहमण काणड 10 अधयाय 6 बराहमण 1 कणडिका 1-11 में अशवपति तथा अरण-आपवेशि आदि 6 विदवानों में वैशवानर के सवरूप विषयक जो संवाद हआ, उसी संवाद का वरणन, कतिपय परिवरतनों सहित, छानदोगय उपनिषद, अधयाय 5, खणड 11 से 18 तक में भी हआ है। पराचीनशाल औपमनयव, सतययजञ पौलषि, इनदर-दयमन भाललवेय, जन शाकराकषय, बडिल आशवतराशवि तथा उददालक आरणि, ये 6 विदवान, ‘‘आतमा और बरहम का कया सवरप है” इसे जानने के लिये केकय के राजा अशवपति के पास आ। परातःकाल जाग कर अशवपति ने उनके परति कहा किः-

न मे सतेनो जनपदे न कदरयो न मदयपो।

नानाहितागनिरनाविदवान न सवैरी सवैरिणी कतः।।      (खणड 11 कणडिका 5)

तथा साथ यह भी कहा कि हे भागयशालियों ! मैं यजञ करूंगा, जितना-जितना धन मैं परतयेक ऋतविज को दूंगा उतना-उतना आप सबको भी दूंगा, तब तक आप परतीकषा कीजिये और यहां निवास कीजिये।

उपरयकत शलोक का अरथ निमनलिखित हैः-

न मेरे जनपद अरथात राजय में कोई चोर है, न कंजूस सवामी और वैशय हैन कोई शराब पीने वाला है न कोई यजञकरमों से रहित है, न कोई अविदवान है। न कोई मरयादा का उललंघन करके सवेचछाचारी है, सवेचछाचारिणी तो हो ही कैसे सकती है।

इस शलोक में कही गई बातों का अभिपराय यह है कि आतमजञ और बरहमजञ शासक ही, परजाजनों को उततम शिकषा देकर, उनहें सामाजिक तथा धारमिक भावनाओं से समपनन कर सदाचारी बना सकते हैं।” हमारा अनमान है कि आज पूरे विशव में क भी आतमजञ वं बरहमजञ शासक नहीं है। यह उननति नहीं अपित अवनति का परतीक है।

राजा अशवपति ने जो घोषणा की, उसके अनसार उनके देश केकय में तब तक कोई नागरिक चोर नहीं था अरथात उनके राजय में चोरी नहीं होती थी। दूसरी विशेषता थी कि कोई नागरिक कंजूस नहीं था। तीसरी विशेषता थी कि कोई नागरिक शराब नहीं पीता था। चैथी विशेषता उनहोंने यह बतायी कि कोई नागरिक यजञ करम न करने वाला नहीं है अरथात परतयेक नागरिक परतिदिन परातः सायं वेदाजञानसार यजञ करता है। कोई परजाजन अविदवान नहीं है अरथात सभी वेदों के जञान से समपनन हैं। सा भी कोई नागरिक नहीं था जो मरयादा का उललंघन करे अरथात सवेचछाचारी हो। जब सवेचछाचारी व चारितरिक पतन वाला क भी परष ही नहीं था तो सवेचछाचारिणी सतरियां तो होने का परशन ही नहीं था। हम जब इस शलोक को पढ़ते हैं और संसार की वरतमान सथिति को देखते हैं तो जञात होता है कि संसार का पतन किस सीमा तक हआ है। यह भारत के मूल निवासी आरय राजा की घोषणा है जब इस देश में सभी निवासी आरय थे, कोई आदिवासी या आरयेततर वनवासी जैसा भेद नहीं था। आरय बाहर से आये, यह महाूठ अंगरेजों ने अपने सवारथ के लि परचारित किया था जिसे आज के अजञानी व विदेशियों के उचछिषठ भोजी भी अपने सवारथ के लि यदा कदा परयोग करते रहते हैं। हमें से लोगों के बदधिमान व मनषय होने भी सनदेह होता है। आज हम भारत को आदरश, सवावलमबी व समृदध राषटर बनाने की बातें तो करते हैं परनत महाराजा अशवपति के राजयकाल के क भी गण को वरतमान के नागरिकों में शत परतिशत सथापित करने का हमारा किंचित संकलप नहीं है। यह बात अलग है कि वैदिक धरमी आरयसमाजी अनेक मनषय से मिलेंगे जो आज भी शत-परतिशत इन नियमों व आदरशों का पालन करते हैं। हमें लगता है कि यह शलोक आदरश राजय का नमूना परदरशित करता है जो पराचीन काल में न केवल कैकय में अपित सरवतर भारत में लाखों व करोड़ो वरष तक रहा है। आज का भारत कैसा है, इसे आज के समाचार पतरों व टीवी समाचारों सहित हमारी लोकसभा में होने वाली घटनाओं को देखकर जाना जा सकता है।

महरषि दयाननद ने आरयसमाज की सथापना न केवल इस शलोक में वरणित पराचीन भारत के आदरश के अनरप देश को बनाने की थी अपित वह पूरे विशव को ही इसके अनरप बनाना चाहते थे। उनहोंने सतयारथपरकाश, ऋगवेदादिभाषय भूमिका, संसकारविधि, आरयाभिविनय वं वेदभाषय आदि गरनथों की रचना भी इसी अभिपराय से की थी। सा भारत व विशव ही आदरश रामराजय कहा जा सकता है। महरषि दयाननद का सवपन भविषय में कभी साकार होगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता परनत हम महरषि दयाननद और आरयसमाज के अनयायियों का आदरश सा ही राजय हो सकता है। हम शतपथबराहमण और छानदोगय उपनिषदकारों को इस शलोक को परसतत करने के लि उनका अभिननदन करते हैं। यदि क वाकय में कहा जाये तो इस शलोक के बारे में यह कहा जा सकता है कि कैकय राजय के समान भारत को बनाने के लि सभी मनषयों को सतय को गरहण करने और असतय को छोड़ने में सरवदा, परतयेक पल-कषण, उदयत रहना चाहिये। वेदमनतर ओ३म विशवानि देव सवितरदरितानि परासव। यद भदरं तननासव।। अरथात ईशवर हमारी समसत बराईयों, दःखों व दवरयसनों को हमसे दूर करे और हमारे लि जो भदर वा कलयाणकारक गण, करम, सवभाव व पदारथ हैं वह सब हमें परापत कराये।

 

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