शंका 1 - हम जीवन में 99 प्रतिशत काम आस्थाओं के आधार पर ही करते हैं और केवल 1 प्रतिशत तर्क पर करते हैं। माता-पिता की पहचान भी आस्था पर होती है। कोई भी व्यक्ति अपना DNA टेस्ट करवा कर माता पिता की पहचान सिद्ध नहीं करवाता। आर्य समाज और सनातन धर्म एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं। दोनो एक ही सिक्के (हिन्दू धर्म) के दो पहलू हैं और एक दूसरे के पूरक हैं। आम के चित्र से बच्चे को आम की पहचान करवाना अधर्म या मूर्खता नहीं इसी तरह किसी चित्र से भगवान के स्वरूप को समझने में भी कोई बुराई नहीं वह केवल ट्रेनिंग ऐड (Training Aid) है। आर्य-समाज संगठन ने मूर्ति पूजा को तालिबानी तरीके का एक मुद्दा बना कर हिन्दू-संगठन को कमजोर किया है।
 

समाधान- आस्था अगर ज्ञान के बिना हो तो वह अन्धविश्वास कहलाता हैं। एक उदहारण लीजिये जब वर्षा नहीं होती तो कुछ लोग आस्था के चलते कुत्ते का विवाह कुंवारी लड़की से करते हैं। यह आस्था हैं मगर बिना ज्ञान की आस्था हैं। सभी जानते हैं कि शराब बुरी चीज हैं। जिसे इसकी लत पड़ जाये तो न केवल वह बल्कि उसका परिवार भी बर्बाद हो जाता हैं। फिर भी राजस्थान में एक मंदिर में भक्त देवी की मूर्ति पर शराब चढ़ाते हैं। पूछो तो कहते हैं तुम कौन हमारी आस्था हैं। गुवहाटी में कामख्या का मंदिर हैं। हर रोज सैकड़ों मुर्गे, बकरे, कबूतर, भैंसे और न जाने किस किस निरीह जानवर को देवी को अर्पित करने के नाम पर मारे जाते हैं। पूछो तो कहते हैं तुम कौन हमारी आस्था हैं। एक अन्य उदहारण लीजिये एक छात्र को अध्यापक गणित का एक प्रश्न पूछता हैं। छात्र अपनी तुच्छ बुद्धि से अनाप शनाप उत्तर लिख देता हैं और कहता हैं जी मेरा ही उत्तर सही हैं। अध्यापक पूछता हैं भाई तुम्हारा ही उत्तर सही क्यों हैं। छात्र कहता हैं मेरा ही उत्तर इसलिए सही हैं क्यूंकि मेरी इसमें आस्था हैं, मेरा इसमें विश्वास हैं। अब अध्यापक उसे कितने नंबर देगा सभी जानते हैं। हिन्दू समाज की यही हालत हैं। सभी धार्मिक हैं,आस्थावान हैं,ईमानदार हैं, कर्त्तव्य का पालन करने वाले हैं मगर चलते अपनी आस्था से हैं नाकि नियम से चलते हैं। नियम का निर्धारण यथार्थ ज्ञान से होता होता हैं जो सृष्टि के आदि से अंत तक तर्क की कसौटी पर सदा खरा उतरेगा। इसलिए नियम का पालन करना अनिवार्य हैं और यह तभी होगा तब ज्ञान होगा। जिस प्रकार जिस दिन वह छात्र नियम से गणित की शंका का समाधान निकलेगा उस दिन उस दिन से उसका सही उत्तर निकलने लगेगा उसी प्रकार से जिस दिन हिन्दू समाज वेद रूपी ईश्वरीय नियम का , ईश्वरीय ज्ञान का पालन करने लगेगा उसी दिन से हिन्दू समाज अन्धविश्वास को छोड़कर सत्य मार्ग का पथिक बन जायेगा। जिसका जैसा मन किया उसने वैसे ईश्वर की कल्पना करी, जिसका जैसा मन किया उसने वैसे ईश्वर की पूजा करने की विधि की कल्पना करी,जिसका जैसा मन किया उसने वैसे ईश्वर पूजा के फल की कल्पना करी और सभी कल्पनाओं को आस्था के कपड़े पहनाकर उसे सनातन नाम देकर अपना उल्लू सिद्ध किया। अगर यही सनातन धर्म हैं तो फिर उसे अन्धविश्वास का प्राय: कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं हैं। ऋषियों की पवित्र वेद वाणी को मानने से ही हिन्दू समाज का हित हैं नाकि उसे मानने वाले आर्यसमाजियों का विरोध करने में हैं। फिर भी अगर कोई विरोध करे तो उसे एक ही बात कहना चाहता हूँ कि "आर्यसमाज वह वृक्ष की डाल हैं जिस पर बैठ सनातनी हिन्दू उसे ही काटने की बात कर रहा हैं"।


शंका 2- हिन्दू समाज ने कभी भी विदेश में बसे गैर हिन्दू प्रजातियों पर हमला कर उन्हें जबरन हिन्दू बनाने का प्रयत्न नहीं किया जबकि भारत का इतिहास उठा कर देखे तो भारत में बसने वाले 99% मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे जिन्हें जबरन इस्लाम में दीक्षित किया गया। ऐसा क्यों?

 

समाधान- भारत में बसने वाले 99% मुसलमानों के पूर्वजों की गर्दन पर इस्लामिक तलवार रखकर उन्हें हिन्दू से मुस्लिम बनाया गया था। वैदिक विचारधारा के यथार्थ रूप को जानने वाला कभी अपने धर्म का त्याग नहीं करता इसीलिए वैदिक धर्मी कभी वेदों के प्रचार के लिए तलवार का प्रयोग नहीं करते। यह इस्लाम की कमजोरी हैं की उसे अपनी बात को मनवाने के लिए हिँसा का प्रयोग करना पड़ता हैं। आप इस तथ्य को दूसरे दृष्टिकोण से भी समझ सकते हैं। इस्लाम में मजहब के मामले में शंका करने की अनुमति नहीं हैं। जो शंका करता हैं उससे यही कहा जाता हैं की क्या तुम्हें रसूल अथवा क़ुरान शरीफ की बातों पर विश्वास नहीं रहा। इसके विपरीत वैदिक धर्म किसी भी सिद्धांत की भली भांति नाप-तोल कर, चिंतन कर, मनन कर उसे स्वीकार करने की पूर्ण स्वतंत्रता देता हैं। यही कारण था की वैदिक धर्म को मानने वाली आर्य जाति के गुणों के प्रभाव से, उनकी विद्या के प्रभाव से सम्पूर्ण विश्व प्रकाशवान होता था। विदेशी लोग आर्यवर्त कि भूमि की ओर विद्या प्राप्ति खींचे चले आते थे। नालंदा,तक्षशिला आदि आधुनिक उदहारण हैं। हमें किसी पर हमला करने, किसी से जोर जबरदस्ती करने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। भई जब किट-पतंगे दीपक जैसे सीमित प्रकाश देने वाले पर खींचे चले आते हैं तो ज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश प्रकाशवान इस आर्य भूमि के लिए कितनी चाहत विश्व वासियों को होगी।

इस्लाम को मानने वालो को अपने आप पर कभी भरोसा ही नहीं था कि वे केवल विचारों के मंडन से इस देश की बौद्धिक प्रगति को पीछे छोड़ सकते हैं। उन्होंने जब देखा कि एक लंगोट पहन कर प्रचार करने वाला अर्ध नंग सन्यासी उनके यहाँ के रेशम के चोगे पहनने वाले मुल्ले-मौलवियों पर भारी हैं तो उन्हें कोई और रास्ता समझ नहीं आया इसलिए तलवार ही आखिरी विकल्प बचा। सभी बुद्धिमानों को मार डाला, जो कुछ बचे रह गए उन्हें इस्लाम में दीक्षित कर दिया। बौद्धिक प्रगति का जितना नाश इस प्रक्रिया में हुआ उसका अनुमान लगाना अत्यंत कठिन हैं। आज भी अगर कोई भी मुस्लमान पूर्वाग्रह से मुक्त होकर वैदिक सिद्धांतों को जानने का प्रयास करे तो उन्हें आसानी से समझ में आ जायेगा कि क्यों उनके पूर्वज क्यों वैदिक धर्मी थे और उन्हें तलवार से अधिक ज्ञान पर क्यों भरोसा था।

शंका 3- सनातनी और आर्यसमाजी में अंतर क्या हैं?

समाधान- एक पुरानी घटना से इस अंतर को समझने का प्रयास करते हैं। एक गांव था जिसमें दो मित्र रहते थे। राम और श्याम। राम के पिता अग्रवाल थे एवं साहूकारी का व्यापार करते थे जबकि श्याम के पिता जाट थे एवं किसान का कार्य करते थे। राम के पिता पौराणिक विचारों के थे जबकि श्याम के पिता ने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा हुआ था इसलिए आर्यसमाजी थे। दोनों मित्र आम के बाग में गए और कच्चे आम तोड़ कर खाने लगे। थोड़ी देर में प्यास लगी। बाग़ में जो माली था उसका नाम अब्दुल्लाह था। अब्दुल्लाह के घड़े का दोनों ने पानी पी लिया।जैसे ही पानी पिया दोनों ने अब्दुल्लाह को आते देखा। अब्दुल्लाह बोला आप दोनों गैर मुस्लिम हो और आप दोनों ने मुस्लमान के घड़े का पानी पिया हैं इसलिए आप दोनों अब हिन्दू नहीं रहे। आप दोनों को इस्लाम की दावत देता हूँ। दोनों लड़के रोते पीटते घर भागे। दोनों को कुछ समझ में नहीं आया। अपने अपने परिवार वालो को बताया। राम के पिता सर पकड़ कर बैठ गए और मंदिर के पंडित से समाधान पूछने गए। मंदिर का पंडित पहले तो बोला जो हमारे यहाँ से गया वह वापिस नहीं आ सकता। तुम्हारा लड़का अब कभी हिन्दू नहीं कहला सकता। पर जब राम के पिता ने बोला पंडित जी कोई तो उपाय होगा। तब मोटी असामी देख पंडित जी बोले हरिद्वार लेकर जाना पड़ेगा ,गंगा में डुबकी लगेगी, ४० ब्राह्मणों को भोजन करवाना पड़ेगा , ऊपर से दान-दक्षिणा अलग लगेगी, तब कहीं जाकर प्रायश्चित होगा। राम के पिता ने पूछा पंडित जी कितना खर्च होगा। पंडित जी ने सोच विचार कर 30-40 हज़ार का खर्च बता दिया। राम के पिता सर पकड़ कर बैठ गए। उधर श्याम अपने पिता के पास पहुँचा। उन्हें सब बात कह सुनाई। श्याम के पिता ने पूछा कितना पानी पिया था। श्याम ने बोला एक लौटा। तभी श्याम के पिता ने दो लौटे पानी मंगवाए और श्याम को पिला दिए। 10 मिनट में एक लौटा भर पिशाब श्याम को उतर गया। पिशाब उतरते ही श्याम के पिता ने कहा "लो निकल गया अब्दुल्लाह के घड़े का पानी"। अब कोई पूछे तो कह देना की अब्दुल्लाह के घड़े का पानी तो नाली में बह गया। अरे पानी कोई अब्दुल्लाह का थोड़े ही हैं वह तो ईश्वर का दिया हुआ हैं चाहे किसी भी घड़े में भर लो।

अब पाठक बताये। श्याम के पिता में जो यह चेतना थी, यह किसकी देन थी?
सभी का एक ही उत्तर- स्वामी दयानंद की चेतना थी।
बस सनातनी और आर्यसमाजी में यही अंतर हैं।

शंका 4 -वेदों के शत्रु विशेष रूप से पुरुष सूक्त को जातिवाद की उत्पत्ति का समर्थक मानते हैं।

समाधान - पुरुष सूक्त १६ मन्त्रों का सूक्त हैं जो चारों वेदों में मामूली अंतर में मिलता हैं।

पुरुष सूक्त जातिवाद का नहीं अपितु वर्ण व्यस्था के आधारभूत मंत्र हैं जिसमे “ब्राह्मणोस्य मुखमासीत” ऋग्वेद १०.९० में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र को शरीर के मुख, भुजा, मध्य भाग और पैरों से उपमा दी गयी हैं। इस उपमा से यह सिद्ध होता हैं की जिस प्रकार शरीर के यह चारों अंग मिलकर एक शरीर बनाते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण आदि चारों वर्ण मिलकर एक समाज बनाते हैं। जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग एक दुसरे के सुख-दुःख में अपना सुख-दुःख अनुभव करते हैं, उसी प्रकार समाज के ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के लोगों को एक दुसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना चाहिए। यदि पैर में कांटा लग जाये तो मुख से दर्द की ध्वनि निकलती हैं और हाथ सहायता के लिए पहुँचते हैं उसी प्रकार समाज में जब शुद्र को कोई कठिनाई पहुँचती हैं तो ब्राह्मण भी और क्षत्रिय भी उसकी सहायता के लिए आगे आये। सब वर्णों में परस्पर पूर्ण सहानुभूति, सहयोग और प्रेम प्रीति का बर्ताव होना चाहिए। इस सूक्त में शूद्रों के प्रति कहीं भी भेद भाव की बात नहीं कहीं गयी हैं। कुछ अज्ञानी लोगो ने पुरुष सूक्त का मनमाना अर्थ यह किया कि ब्राह्मण क्यूंकि सर हैं इसलिए सबसे ऊँचे हैं अर्थात श्रेष्ठ हैं एवं शुद्र चूँकि पैर हैं इसलिए सबसे नीचे अर्थात निकृष्ट हैं। यह गलत अर्थ हैं क्यूंकि पुरुषसूक्त कर्म के आधार पर समाज का विभाजन हैं नाकि जन्म के आधार पर ऊँच नीच का विभाजन हैं।

इस सूक्त का एक और अर्थ इस प्रकार किया जा सकता हैं की जब कोई व्यक्ति समाज में ज्ञान के सन्देश को प्रचार प्रसार करने में योगदान दे तो वो ब्राह्मण अर्थात समाज का सिर/शीश हैं, यदि कोई व्यक्ति समाज की रक्षा अथवा नेतृत्व करे तो वो क्षत्रिय अर्थात समाज की भुजाये हैं, यदि कोई व्यक्ति देश को व्यापार, धन आदि से समृद्ध करे तो वो वैश्य अर्थात समाज की जंघा हैं और यदि कोई व्यक्ति गुणों से रहित हैं अर्थात शुद्र हैं तो वो इन तीनों वर्णों को अपने अपने कार्य करने में सहायता करे अर्थात इन तीनों की नींव बने,मजबूत आधार बने।

शंका 5- ९ वें वर्ष के आरम्भ में द्विज अपने संतानों का उपनयन करके आचार्यकुल में अर्थात जहाँ पूर्ण विद्वान और पूर्ण विदुषी स्त्री शिक्षा और विद्यादान करने वाली हो अर्थात वहाँ लड़के और लड़कियो को भेज दें और शूद्र आदि वर्ण उपनयन किये बिना विद्याभास के लिए गुरुकुल में भेज दे।- सत्यार्थ प्रकाश

यहाँ पर यह शंका कि जाती हैं कि स्वामी दयानंद ने द्विज से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का ग्रहण किया हैं एवं उनके उपनयन संस्कार करने का विधान बताया हैं एवं शूद्र को उपनयन संस्कार से वंचित रखा हैं।

 

समाधान- सत्यार्थ प्रकाश में इस विषय में सबसे पहले स्वामी दयानंद की इस मान्यता को समझ लेना अत्यंत महत्वपूर्ण हैं कि स्वामी जी जन्मना वर्ण को नहीं मानते अपितु वर्ण के निर्धारण के विषय में लिखते हैं की " यह गुण कर्मों से वर्णों कि व्यवस्था कन्याओं की सोहलवें वर्ष और पुरुषों की पच्चीसवें वर्ष की परीक्षा में नियत करनी चाहिए-सत्यार्थ प्रकाश।"

अर्थात शूद्रों के घर में जन्मा बालक ब्राह्मण भी हो सकता हैं, क्षत्रिय भी हो सकता हैं, वैश्य भी हो सकता हैं और शूद्र भी हो सकता हैं इसी प्रकार से ब्राह्मण के बालक ब्राह्मण भी हो सकता हैं, क्षत्रिय भी हो सकता हैं, वैश्य भी हो सकता हैं और शूद्र भी हो सकता हैं। इस वर्ण का निर्धारण शिक्षा सम्पूर्ण होने के पश्चात होता हैं नाकि जन्म गृह में माता पिता के वर्ण के आधार पर होता हैं। आज समाज में डॉक्टर,इंजीनियर आदि सभी शिक्षा प्राप्ति के पश्चात बनते हैं नाकि अपने माता पिता की योग्यता के आधार पर बनते हैं। जहाँ तक उपनयन की बात हैं स्वामी जी ने अत्यंत व्यवहारिक बात करी हैं। शूद्रों के यहाँ पर उपनयन क्या कोई भी संस्कार नहीं होता था। ब्राह्मण लोग छुआछूत के चलते शूद्रों के घरों में संस्कार आदि नहीं करवाते थे। संस्कार तो दूर शूद्रों का दर्शन, छूना, उनके साथ भोजन करना आदि सब वर्जित था। ऐसे वातावरण में न शूद्रों का उपनयन होता और न ही उन्हें शिक्षा मिल पाती। बिना शिक्षा के वे सदा शूद्र ही बने रहते। इसलिए स्वामी दयानंद ने घर पर होने वाले संस्कार में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को उनके परिवार की परम्परा के अनुसार संस्कार कर शिक्षा प्राप्त करने का विधान लिखा और शूद्रों को पुरोहित की अनुपलब्धता के चलते बिना संस्कार के ही गुरुकुल में प्रवेश करने का विधान बताया। गुरुकुल में आचार्य सभी का संस्कार कर सकता था। साथ में सभी को एक समान भोजन, वस्त्र आदि देना भी स्वामी जी हैं जोकि वैदिक साम्यवाद का सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं। स्वामी जी शूद्रों के उपनयन विरोधी नहीं हैं अपितु उस काल परिस्थिति में जो सबसे उत्तम उपाय शूद्रों के उत्थान के लिए था उसके हिमायती हैं।

शंका 6- शांति पाठ के मंत्र में ईश्वर से जल, पृथ्वी, औषधि, वनस्पति आदि को शांति प्रदान करने कि प्रार्थना करी गई हैं। शंका यह हैं कि क्या जल, पृथ्वी आदि भौतिक पदार्थों में अशांति भरी हुई हैं?

समाधान- सत्य यह हैं की जल, पृथ्वी, औषधि, वनस्पति आदि सभी जड़ पदार्थ हैं। शांति या अशांति हमारे मन के मानसिक भावों का परिणाम हैं। संसार के सभी पदार्थों में और मनुष्य में भोक्ता और भोग का सम्बन्ध हैं। ईश्वर प्रदत सभी भौतिक पदार्थ हमारे सुख के लिए हैं जिनका उद्देश्य हमें लाभ पहुँचाना हैं। परन्तु हम अपनी कल्पनाओं से, अपनी शक्तियों से इन पदार्थों से स्वार्थ सिद्धि करना चाहते हैं जिससे यह पदार्थ सुख के स्थान पर दुःख के साधन बन जाते हैं। शांति पाठ पढ़ते समय हमारे मन के अंदर विशेष भाव आने चाहिए और उन भावों का प्रभाव हमारे क्रियात्मक एवं धार्मिक जीवन पर पड़ना चाहिए। शांति पाठ पढ़ते समय हमारे मन के अंदर जीवन के व्यवहारों को इस प्रकार से करने का संकल्प आना चाहिए जिससे हम अशांति से बच सके और शांति को प्राप्त कर सके। इसके लिए हमारे हृदय एवं मस्तिष्क के विचार भी इसी प्रकार के होने चाहिए। शांति पाठ का मुख्य उद्देश्य जगत के पदार्थों को मालिक की दृष्टि से नहीं अपितु "इदं न मम" अर्थात यह सब मेरा नहीं हैं की दृष्टि से भोगने की प्रेरणा देना हैं जिससे यह सभी पदार्थ सुख एवं शांति देने वाले हो।

शंका 7-अग्निहोत्र सदा प्रात:काल एवं सांयकाल संध्या के समय ही क्यों किया जाता हैं?
समाधान- स्वामी सत्यप्रकाश जी द्वारा लिखित पुस्तक के आधार पर अग्निहोत्र करते समय जब अग्नि के लपटे बुझ जाती

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