Shahpura

राव कर्णसिंह की तलवार के टुकड़े-टुकड़े कर दिये-स्वामी जी ने।
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महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का आगमन शाहपुरा-राजस्थान में

महत्व- स्वामी दीर्घकाल तक शाहपुरा में रहे, राजा को शिक्षा दी, मनुस्मृति, योग दर्शन आदि पढ़ाये और राजा स्वामी जी के अनन्य भक्तों में से थे। जब राजाधिराज सर नाहरसिंह को यह सूचना मिली कि महाराज उदयपुर से विदा होकर चितौड़ में विराजमान हैं तो उन्होंने तुरन्त अपने विश्वस्त कर्मचारियों को स्वामी जी को लाने भेजा और लिखित प्रार्थना पत्र भी श्री सेवा में प्रेषित किया। पूर्व स्वीकृति अनुसार तथा राजाधिराज की भक्ति और प्रेम के कारण स्वामी जी उनके कर्मचारियों के साथ शाहपुरा के लिए चल पड़े। फाल्गुन कृष्णा 14 संवत् 1936 अर्थात् 09 मार्च 1883 को स्वामी जी महाराज शाहपुरा पहुँच गये। स्वामी जी के निवास का प्रबन्ध राजकीय बाग में था, वहीं डेरे आदि लगवा दिये और स्वामी वहीं ठहरे।

सायंकाल को ही राजाधिराज भी परिषद्वर्ग सहित श्री सेवा में उपस्थित हुए। उस दिन दो घण्टे तक स्वामी जी और महाराजधिराज का प्रेमालाप चला। पांच दिनों तक वात्र्तालाप होता रहा। फिर निश्चय हुआ कि राजाधिराज सायं 6ः00 बजे से रात्रि 9ः00 बजे तक श्रीसेवा में उपस्थित रहेगे। जिसमें एक घण्टे तक धर्मविषय पर प्रश्नोत्तर और दो घण्टे पढ़ना होगा। इस प्रकार राजाधिराज ने श्री स्वामी से मनुस्मृति, पातंजल योगदर्शन, वैशेषिक दर्शन का कुछ भाग पढ़ा। शाहपुरा में स्वामी जी ने प्रवचन, वेदभाव्य, शंकसमाधान, शास्त्रार्थ आदि अन्य समाज सुधार के कार्य भी चलते रहे।

स्वामी जी के उपदेश से प्रेरित होकर महाराजा ने महलों में एक यज्ञशाला बनवाई, जिसमें प्रतिदिन यज्ञ करवाने का संकल्प लिया। विदा होते समय शाहपुराधिश ने 250 वेदभाव्य सहयोग हेतु तथा वेद-धर्म प्रचार हेतु एक प्रचारक को 30 रुपये मासिक पर रखने का वचन दिया। फाल्गुन कृष्णा 14.1936 अर्थात् 09 मार्च 1883 से ज्येष्ठ कृष्णा 14.1936 अर्थात् 26 मई सन् 1883 तक शाहपुरा में रहे।

वर्तमान-स्थिति-एक आर्यसमाज है और भूमि भी है। आर्यसमाज का कार्य शिथिल है। कुछ वयोवृद्ध आर्यजन हैं, जो आर्यसमाज से जुड़े है। युवावर्ग का अभाव है। 1999 ग्रीष्मकाल में राजस्थान प्रान्तीय आर्यवीर दल का शिविर भी शाहपुरा में आयोजित हुआ था।