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जून-सितम्बर-(आषाढ़ कृष्ण अश्विन) सन्-1875 में 54 व्याख्यान हुये थे, 15 व्याख्यानों को लिपिबद्ध किया जो उपदेशमंजरी नाम पुस्तक में है।
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जून-सितम्बर-(आषाढ़ कृष्ण अश्विन) सन्-1875 में 54 व्याख्यान हुये थे, 15 व्याख्यानों को लिपिबद्ध किया जो उपदेशमंजरी नाम पुस्तक में है।

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पूना में स्वामी जी को महादेव गोविन्द रानडे और महादेव मोरेश्वर कुण्टे आदि सुधारक दल के नेताओं ने बुलाया था। रानडे महोदय उन दिनों पूना में जज थे, बाद में बम्बई हाईकोर्ट के जज हो गये। वे स्वामी जी की शिक्षा व उपदेश को ग्रहण करते थे और स्वामी जी को गुरु मानते थे। स्वामी जी पूना में विट्ठल पेंठ में पंच हौस के पास शंकर सेठ के मकान में ठहरे थे।

पूना पहुँचने पर विज्ञापन-प्रमाणिक और अप्रमाणिक ग्रन्थों की सूची

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यदि कोई शास्त्रार्थ करना तो ध्यान रहे और वादविवाद में समय नष्ट न करे। व्याख्या-पूना में स्वामी जी के 54 व्याख्यान हुए थे। वे सब लिपिबद्ध किये गये थे। उनमें से 15 व्याख्यानों का जो नगर में हुए जो आर्यभाषा में मुद्रित हुए। जो उपदेशमंजरी (पूनाप्रवचन) के नाम से प्रसिद्ध है। स्वामी जी एक दिन व्याख्यान, दूसरे दिन शंकासमाधान करते थे, हजारों की संख्या में लोग सुनने आते थे और महाराज की वाग्यिता और विद्या पर मुग्ध हो जाते थे।

कुछ लोगों में भ्रम हो गया कि स्वामी संस्कृत अच्छी नहीं जानते, इसलिए हिन्दी बोलते है, फिर स्वामी जी ने संस्कृत में बोला तो सब मन्त्रमुग्ध हो गये। पुनः निवेदन पर हिन्दी में ही व्याख्यान करते रहे।

पण्डितों ने नाक रखने हेतु शास्त्रार्थ की चर्चा-आपस में की, लेकिन वे वेदज्ञ नहीं थे, इसलिए स्वामी जी के सामने नहीं आये।

इन्दु-प्रकाश के सम्पादक ने 16-8-1875 के अंक में लिखा-पण्डित वेदज्ञ नहीं थे, इसलिए दयानन्द के सामने नहीं आये। ऋषि दयानन्द की ख्याति तथा वेद का सबको अधिकार, मूर्तिपूजा का खण्डन से आघात होकर पौराणिकदल उपद्रव करने पर उतारू हो गया।

स्वामी के विरोध में पौराणिकदल के नेता नारायण भीकाजी जोग लेकर ने रामशास्त्री और वसुदेवाचार्य के व्याख्यान करायें। 22 अगस्त की रात्रि में किसी ने कस्बे के गणपति और अहल्या की मूर्तियां नाली में फेक दी। इससे पूना में घोर आन्दोलन मच गया।

स्वामी जी पर और उनके अनुयायियों पर मिथ्या आरोप लगाये कि इनके कारण ही ये हुआ। अनेक मिथ्या-भ्रम युक्त बातें स्वामी जी के विरुद्ध जनता में पाखण्डियों ने फैलाई। विरोधी वर्ग के लोगों ने अविद्या और युक्ती से कार्य सिद्ध न होने पर अनेक अन्य तरीकों से स्वामी जी का विरोध शुरू किया।

परन्तु अन्त में सब जगह स्वामी दयानन्द जी की ही जय जयकार हुई।

05 सितम्बर 1875 (रविवार) को स्वामी जी का सम्मान और पूना नगर में समारोह यात्रा निकालने का निश्चय हुआ। सभा के लिए निमन्त्रण पत्र भेजे गये, सभागृह को फूल-मालाओं से सजाया गया। स्वामी जी हेतु हाथी मंगवाया गया, लेकिन स्वामी जी ने हाथी पर बैठने से इन्कार कर दिया। समारोह यात्रा में सबसे आगे हाथी, कोतल घोड़े, फिर पुलिस के सिपाही, बाजे वाले, फिर स्वामी जी महाराज और उनके भक्तजन, अन्त में अन्यजन। यात्रा आरम्भ के समय 300-400 मनुष्य थे, लेकिन नगर तक पहुँचने पर यह संख्या 3-4 हजार हो गयी।

विपक्षियों की लीला, गर्दभ-शोभायात्रा

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स्वामी जी के पाण्डित्य, वेदज्ञान, नारी-शूदों को बराबरी का अधिकार देना आदि सामाजिक सुधार से पौराणिक जगत् में हा-हाकार मच गया। वे इस शोभा यात्रा के विरोध में गधे पर किसी व्यक्ति को बैठकर स्वामी जी का अपमान करने हेतु असफल प्रयास किया, लेकिन इससे स्वामी के विचारों और ख्याति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

दोनों यात्राओं की मुठभेड़

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स्वामी जी की समारोह यात्रा सायंकाल 5:00 बजे कैम्प से चली, भवानी पेठ, गणेश पेठ, आदित्यवारपेठ, बुधवारपेठ में से होती हुई भिड़े के बाड़े की ओर जहाँ स्वामी जी का व्याख्यान होना था, वहाँ उस समय तक 7:30 बज गये और मशालें जला दी गयी। दूसरी ओर से गर्दभदल भी आ पहुंचा और उस दल ने अमर्यादित होकर अभ्रदता युक्त वचन बोलना शुरू किया। उस दिन बीच-बीच में वर्षा भी हो रही थी, लेकिन लोगों में बहुत उत्साह था, इसलिए किसी ने भी वर्षा की परवाह नहीं की।